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जापान : चीन, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया सहित पंद्रह देशों ने रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) समझौता किया है, जबकि भारत ने पिछले वर्ष इसमें शामिल न होने की घोषणा कर दी थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल 4 नवंबर को ही इस क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौते में शामिल होने से मना कर दिया था। इस समझौते के तहत 74 प्रतिशत उत्पादों का निर्यात इन देशों के बीच शून्य शुल्क पर हो सकेगा। पिछले वर्ष मैं उस प्रयास से जुड़ा था कि यह समझौता न होने पाए। समझौता होने से मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र, डेयरी, कृषि, दवा, दवा उपलब्धता, पेटेंट आदि कई मोर्चों पर हमें भारी नुकसान उठाना पड़ता। आसियान देशों के साथ हमारा पहले से ही समझौता है, इसकी वजह से आसियान देशों के साथ हमारा जो व्यापार घाटा है, वह ढाई से तीन गुना तक बढ़ गया है। एक और नुकसान यह होने वाला था कि चीन आसियान देशों के रास्ते भारत में सामान भेज रहा था। समझौता हो जाता, तो चीन हमें सीधे सामान भेजता। जापान से हमारा एफटीए समझौता है, इसके चलते उसके साथ भी हमारा व्यापार घाटा ढाई से तीन गुना बढ़ गया था। अभी हमें एफटीए से ही जो नुकसान हैं, वे काफी बड़े हैं, अगर इससे भी बड़ा ऐसा ही समझौता कर लें, तो हमें भारी  नुकसान होगा। 

अगर यह समझौता हो जाता, तो हमारा डेयरी उद्योग खत्म ही हो जाता। न्यूजीलैंड से दूध पाउडर 180 रुपये प्रति किलोग्राम आ सकता है। इतना सस्ता दूध आएगा, तो लोग भारत में गाय रखना ही बंद कर देंगे। ठीक इसी तरह, कृषि क्षेत्र पर भी यह समझौता गहरे वार करता। मैंने अधिकारियों को चुनौती दी थी कि कोई एक ऐसा सेक्टर बता दें, जो यह कह दे कि इस समझौते से फायदा होने वाला है। मेरे पास हरेक उद्योग से जुड़े लोग आते थे, और कहते थे कि इस समझौते को रुकवा दीजिए, नहीं तो हम बर्बाद हो जाएंगे। हम चीन से 75 प्रतिशत उत्पाद शून्य शुल्क पर आयात करने के लिए कैसे तैयार हो जाएं? 

इस समझौते के लिए जापान का तैयार होना अजीब बात लग रही है। जापान के मुख्य वार्ताकार मुझसे मिले थे। मैंने कहा था, हम लोग समझौता नहीं चाहते। इसके तीन दिन बाद जापान ने यह घोषणा की थी कि अगर भारत इसमें शामिल नहीं होगा, तो हम भी नहीं होंगे। अभी अचानक कुछ हुआ है, शायद अमेरिका में जो बाइडन के चुनाव जीतने के बाद जापान का रुख बदला है। सबसे ज्यादा फायदा चीन को होगा, बाकी भागीदार देश कैसे बचेंगे, यह सवाल महत्वपूर्ण है। जापान, दक्षिण कोरिया, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया के लिए तो यह मानो आत्मघात की कोशिश है। जब पूरी दुनिया चीन के खिलाफ हो रही है, तब ऐसा समझौता हो जाना अजीब है। चीन के बाजार पर लोहे का परदा है। वह दुनिया भर के सामान बनाता है, सस्ता करके बेचता है। दूसरे देशों के लिए तरह-तरह की पाबंदियां भी लगा रखी हैं। शुल्क लगा रखे हैं। चीन बहाने बनाएगा कि हम इस सामान को इसलिए नहीं आने दे रहे, क्योंकि इससे हमारे लोगों के स्वास्थ्य को खतरा है या यह हमारी सुरक्षा से जुड़ा मामला है। अपने टेलीकॉम क्षेत्र में तो वह किसी को वैसे ही आने नहीं देता है। चीन ने दूसरों के लिए जो पाबंदियां लगा रखी हैं, वे इस समझौते से समाप्त होने वाली नहीं हैं। 

हमें यह भी देखना चाहिए कि जिन देशों ने समझौता किया है, वे ज्यादातर विकसित देश हैं। उनकी नजर में बाजार है, जिसके लिए वे भारत की तरफ देखते हैं, लेकिन हम क्यों बाजार बनें? हम क्यों न अपने लिए उत्पादन करें और अपने लोगों को रोजगार दें, आगे बढ़ाएं? भारत ने बहुत दबाव के बावजूद सोच-समझकर यह फैसला किया है। हर देश अपने बारे में सोचता है, अपनी आत्मनिर्भरता के बारे में सोचता है। ध्यान दीजिए, भूमंडलीकरण, एफटीए, डब्ल्यूटीओ के कारण हमलोग पहले ही मैन्युफैक्र्चंरग में पिछड़ गए हैं, तो हम वापसी कैसे करें, इसके लिए प्रयास हो रहे हैं। लेकिन अगर हम यह समझौता कर लें, तो हमें आत्मनिर्भर होने की अपनी नीतियां छोड़नी पड़ेंगी। समझौता न करने से हमें कोई नुकसान नहीं होने वाला। चीन के अलावा जो 14 मुल्क इसमें शामिल हुए हैं, उनमें से 12 के साथ हमारा पहले से ही समझौता है। ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के साथ हमारी बातचीत चल रही है, अपने हित के अनुरूप हम उनसे समझौता करेंगे। 


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