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जिसने मुझे कोई नुकसान पहुंचाया या रंज दिया उसे मारना या उसके हाथों मर जाना तो फिर भी समझ में आता है. कमरे में बंद होकर या खुले में आत्महत्या करना भी समझ आता है कि ज़हर खाने, पंखे से लटकने या खुद को गोली मारने का कोई कारण होगा.

ऐसा कारण जो ज़रूरी नहीं कि मेरी और आपकी समझ में भी तुरंत आ जाए. मगर ऐसे इंसानों को मारना जिन्हें न आप और न ही वो आपको जानते हों, वो जवान, बच्चे, बूढ़े और महिलाएं जो न आपसे कभी मिले, न मिलेंगे. इन सबके लिए ये चाहना कि वो सब भी मेरे साथ मर जाएं और कितना अच्छा हो कि मेरे ही हाथों मरें.

और फिर इस मौत में भी अपने लिए स्वर्ग और जिन्हें मैं मार रहा हूं, उन्हें नरक भेजने का फ़ैसला भी खुद ही करना. पागलपन की अगर कोई भी आख़िरी सीमा हो सकती है तो इसके अलावा और क्या होगी. आत्मघाती या मेरे दिमाग़ को आत्मघाती बारूद में बदलने वाला, दोनों की असल जगह मानसिक रोगों को अस्पताल या कोई बंदीखाना है. मगर पता तब चलता है जब पता चलने का कोई फ़ायदा ही न हो.

मुझे सब्र आ जाए अगर आत्मघाती सिर्फ खुद को या आसपास के लोगों की मौत का ही कारण बन जाए. मगर ऐसी घटनाओं में सिर्फ़ हत्यारा और बेगुनाह इंसान और इमारतें थोड़ी ख़त्म होती हैं. ऐसी घटना में एक नस्ल का दूसरी नस्ल पर से, एक धर्म का दूसरे धर्म पर से, एक देश का दूसरे देश पर से और एक समाज का दूसरे समाज पर से मामूली विश्वास भी धीरे-धीरे उठता चला जाता है. और आख़िर में एक जंगल और इस जंगल में सिर्फ भेड़िये बचते हैं और वो एक-दूसरे को खाना शुरू कर देते हैं. पर ये कैसे हो सकता है कि श्रीलंका में इतने इंसानों के चीथड़े उड़ने का किसी को फ़ायदा ही न पहुंचा हो? हर ऐसी घटना ख़ून की वो बोतल है जो हर तरह के अतिवाद को एक नया जोश, नई ज़िंदगी देती है और उसकी उम्र बढ़ा देती है.

भले ही वो मुसलमान, सिंहल, हिंदू ज़ायनिस्ट या बर्मी बौद्ध अतिवादी हों, बहुमत को अल्पसंख्यक के भूत से डराने का कारोबार करने वाला हो या फिर इस संसार में बर्मा, रवांडा और बोस्निया में नरसंहार का बाज़ार लगाने वाला.

शिंज़ियांग के वीगर नस्ल के लोगों को नई शिक्षा के नाम पर कैंपों में धकेलने वाला कोई चीनी कर्मचारी हो, कालों को ज़िंदा जलाने के बारे में सोचने वाला कोई गिरोह हो, अपने सिवा किसी भी दूसरे मुसलमान को काफ़िर समझकर मार डालने वाला जिहादी हो या फिर सोशल मीडिया के डिजिटल आतंकवादी... सब के सब किसी एक व्यक्ति या गुट के किए गए इस भयंकर जुर्म का अपने-अपने तौर पर लाभ उठाते हैं और यूं नफ़रत का झाड़-झंखाड़ ऑर्गैनिक अंदाज़ में फैलता ही चला जाता है. मगर इनमें से कोई भी मंगल से इस पृथ्वी पर नहीं उतरा. ये सब हममें से हैं, हमारे आसपास ही हैं, हमारे अपने दिमाग़ में छिपे हुए हैं. और मांग हमारी ये है कि सरकार कुछ करे. क्या बात है हमारी और आपकी इस मांग की. अल्लाह-अल्लाह, सुबहान अल्लाह!


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