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चुनाव से कुछ महीने पहले तक एनडीए एक और चुनाव जीतने के लिए तैयार दिख रहा था, लेकिन जैसे-जैसे चुनाव अभियान आगे बढ़े, राज्य भर की हवा में बदलाव के संकेत दिखाई देने लगे थे। हालांकि, नतीजे संकेत देते हैं कि बिहार में बदलाव लाने के पक्ष में चल रही हवा पर्याप्त नहीं थी। 

इसमें कोई शक नहीं कि राजद गठबंधन के पक्ष और तेजस्वी यादव के नेतृत्व में सकारात्मक, व्यवस्थित और सुसंगत चुनाव अभियान चलाया गया। दूसरी ओर, चुनाव से पहले ही एनडीए में बिखराव दिखने लगा था और इसमें कोई शक नहीं कि उसका प्रदर्शन और बेहतर हो सकता था। एनडीए एक बड़ी जीत दर्ज करता, अगर चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी गठबंधन से अलग नहीं हुई होती। नीतीश कुमार के खिलाफ चिराग के आक्रामक अभियान से न सिर्फ मुख्यमंत्री की छवि को ठेस लगी, बल्कि बड़ी संख्या में जदयू के खिलाफ उम्मीदवार उतारने से भी एनडीए को नुकसान उठाना पड़ा। सरकार चला रहे एनडीए के काम और राजनीति को लेकर भी एक भ्रम की स्थिति बनी।  तेजस्वी यादव के साथ ही चिराग पासवान ने भी नीतीश कुमार के खिलाफ आक्रामक अभियान चलाकर नीतीश हटाओ कोरस छेड़ दिया था। इस मांग को एक हद तक भाजपा के मतदाताओं का भी समर्थन हासिल था।   

चुनाव की घोषणा के समय महागठबंधन थोड़ा कमजोर दिख रहा था, लेकिन अभियान के दौरान उसकी मजबूती बढ़ी। महीने भर के अभियान के दौरान तेजस्वी यादव ने बेरोजगारी और विकास के मुद्दे पर पूरी तरह से ध्यान केंद्रित रखा। बहुत कामयाबी से वह किसी भी तू-तू मैं-मैं में घसीटे जाने से बचे। उन्हें जंगलराज का युवराज भी कहा गया। अनेक बार प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री ने कथित रूप से 1990 से 2005 तक चले ‘जंगलराज’ का नाम लिया। अपने अत्यंत एकाग्र अभियान के तहत तेजस्वी यादव ने युवाओं, शिक्षित बेरोजगारों से जुड़े सवाल उठाए। वह युवा मतदाताओं के साथ संपर्क स्थापित करने में सक्षम थे और इसमें कोई संदेह नहीं, बड़ी संख्या में युवाओं ने महागठबंधन को भी वोट किया है। हालांकि, जिस तरह से उम्मीद की जा रही थी कि युवा मतदाता नीतीश कुमार को भारी बहुमत से हटा देंगे, वैसी स्थिति बनती नहीं दिखी। तेजस्वी के प्रति लोगों में आकर्षण तो था, लेकिन इतना ज्यादा नहीं था कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को एकदम से नकार दिया जाए। 

इसके अलावा राजद के सहयोगियों ने भी एनडीए को चुनौती देने में महागठबंधन की मदद की है, लेकिन यह मदद भी ऐसी नहीं है कि नीतीश कुमार को बिल्कुल नकार दिया जाए। राजद के साथ जंगलराज का तमगा जुड़ा है, अत: अपेक्षाकृत नए तेजस्वी यादव के लिए इस आरोप का सामना कठिन काम था। फिर भी यह मानना होगा कि उनके द्वारा चलाया गया चुनाव अभियान जंगलराज की बातों से बिल्कुल अलग था। युवाओं से जुड़े मुद्दे उठाना और रोजगार का वायदा करने की वजह से ही वह मजबूती से चुनाव लड़ने में सफल रहे। खास यह भी है कि महागठबंधन के अंदर सहयोगियों को एक दूसरे के वोट हस्तांतरित हुए हैं, लेकिन शायद एनडीए में ऐसा नहीं हो पाया है। पूरे नतीजे सामने आने के बाद एनडीए में शामिल दलों को भी मंथन के लिए तैयार रहना चाहिए।

लगता है, नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के रूप में फिर पेश करने से भाजपा के नाखुश मतदाताओं की नाराजगी बढ़ सकती थी, लेकिन अनेक रैलियों में नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार के मंच साझा करने से एनडीए को मदद मिली है, मतों का संभावित नुकसान कम हुआ है। वैसे, इस चुनाव में कहीं न कहीं भाजपा और जदयू के कार्यकर्ताओं के बीच समन्वय काफी हद तक गायब ही रहा है। 

फिर भी इस चुनाव में भाजपा को संभावित खतरे को महसूस करने की जरूरत है। कई राज्यों में भाजपा की जीत को नरेंद्र मोदी के जादू के रूप में जाना जाता है, लेकिन हाल के वर्षों में चीजें कुछ बदली हैं। बिहार से पहले, भाजपा झारखंड, छत्तीसगढ़, राजस्थान, दिल्ली में चुनाव हार चुकी है, हरियाणा में अपने दम पर बहुमत नहीं पा सकी और महाराष्ट्र में सरकार बनाने में नाकाम रही। मतदाताओं ने राज्य चुनाव और राष्ट्रीय चुनाव के बीच अंतर करना शुरू कर दिया है। विभिन्न राज्य विधानसभा चुनावों में भाजपा के खराब प्रदर्शन ने राज्य विधानसभा चुनावों में भाजपा के पक्ष में वोट स्विंग करने की नरेंद्र मोदी की क्षमता को भी उजागर कर दिया है। ऐसे संकेत तब पार्टी के लिए खतरे की घंटी ही हैं, जब वह 2021 के पूर्वाद्र्ध में कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव लड़ने उतरने वाली है। 


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