पाकिस्तान की हैवानियत, 8000 लोगों को लटकाएगा फांसी पर, सिखों पर कर रहा अत्याचार
नई दिल्ली, जागरण स्पेशल। साल 1947 में दो देश बने। एक भारत तो दूसरा पाकिस्तान। आज भारत को दुनिया सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में जानती है जो सबका साथ सबके विकास के मंत्र के साथ दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर उन्मुख है। दूसरे देश पाकिस्तान की भी पहचान बनी। दुनिया ने इसे आतंक की नर्सरी के रूप में जाना-समझा। आर्थिक रूप से बदहाल यह देश अपने लोभी मित्रों की खैरात पर जिंदा है। पाकिस्तान में लोगों की बुनियादी जरूरतें ही नहीं पूरी हो पा रही हैं। पेट्रोल से महंगा यहां दूध हो गया है। पिछले सत्तर साल में तीन दशक से अधिक समय तक सैन्य शासक के रूप में पनपे तानाशाहों ने मनमानी की। ऐसे में सूरज को दीया दिखाने चले पाकिस्तान की हाल-ए-बयां ह्युमन राइट्स वाच की ताजा रिपोर्ट बयां कर रही है।
आतंक की विषबेल
आम नागरिकों के बर्बर नरसंहार के बढ़ते मामले पाकिस्तान की करनी का फल हैं। भारत विरोध के लिए उसने जिस आतंकी की नर्सरी को रोपा और खाद और पानी दी, आज वही आतंक उसे ही लहूलुहान करने लगा है। यही नहीं पाकिस्तान ने पश्चिमी देशों के अपार समर्थन के बूते लोगों के अधिकारों का दमन करने के लिए इस्लामिक शरई कानून लागू किया। इसी के साथ पहली बार पाकिस्तान में धार्मिक नेता और कट्टरपंथी प्रभावशाली और ताकतवर हुए।
8000 कैदी कर रहे फांसी का इंतजार
मानवाधिकारों की दुहाई देने वाले पाकिस्तान में 8000 कैदी फांसी का इंतजार कर रहे हैं। फांसी पर लटकाने के इंतजार में यह किसी एक देश से दुनिया की सबसे बड़ी आबादी है। ह्यूमन राइट्स वाच के अनुसार पाकिस्तान में अकेले ईशनिंदा के आरोप में 17 लोग फांसी की कतार में हैं। सैकड़ों लोग मुकदमे का दंश झेल रहे हैं। ईशनिंदा के एक चर्चित मामले में सजा काट रही 47 साल की आसिया बीबी की सजा माफ करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जब उन्हें छोड़े जाने का आदेश दिया। कट्टरपंथियों ने आसमान सिर पर उठा लिया। गली-मुहल्लों में हिंसक प्रदर्शन शुरू हो गया। यहां तक कि जज सहित सरकारी अधिकारियों और सेना तक को धमकाया गया।
मानवाधिकारों का हनन
गुलाम कश्मीर, सिंध, बलूचिस्तान, गिलगित-बाल्टिस्तान सहित पाकिस्तान के कई हिस्से आक्रोश की आग में सुलग रहे हैं। सेना की बर्बरता ने यहां के लोगों के जीवन जीने के अधिकार को छीन लिया है। आतंक को रोकने के अभियानों के नाम पर अलग राष्ट्र की मांग कर रहे बलूचिस्तान सहित देश के कई हिस्सों में सेना अत्याचार ढा रही है। अभिव्यक्ति के नाम पर पाकिस्तान में खामोशी है। सुरक्षा एजेंसियों के साथ आतंकी समूहों पर मीडिया समूह और आम जनता निशाने पर होती है। सरकारी संस्थाओं और न्यायपालिका के खिलाफ न बोलने-लिखने को लेकर अधिकारियों का मीडिया को फरमान आता है।
शुरू से ही निशाने पर अल्पसंख्यक
पहले से ही पाकिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यक राजनीति के पीड़ित रहे हैं। 1974 में एक अध्यादेश के तहत अहमदिया समुदाय को गैर मुस्लिम अल्पसंख्यक करार दिया गया था। अहमदी मुसलमान खुद को मुस्लिम नहीं कह सकते थे। इस्लामिक अभिवादन (अस्सलाम अलैकुम) सहित प्रार्थना (नमाज) नहीं कर सकते थे। मस्जिदों में नहीं जा सकते थे। जियाउल हक के कार्यकाल 1984 में इस कानून को और सख्त कर दिया गया। अनुच्छेद 289 ए, बी, सी और 295, 295 ए को पाकिस्तान की दंड संहिता का हिस्सा बनाया गया। अब अगर कोई अहमदी खुद को मुस्लिम कहता तो उसे आर्थिक दंड सहित तीन से दस साल की सख्त कैद हो सकती थी।
महिलाओं और बच्चों पर अत्याचार
पाकिस्तान में महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा चरम पर है। दुष्कर्म, ऑनर किलिंग, एसिड अटैक, घरेलू हिंसा और जबरदस्ती शादी के मामले गंभीर समस्या बने हुए हैं। ह्यूमन राइट्स वाच के अनुसार हर साल करीब एक हजार ऑनर किलिंग के मामले सामने आते हैं। एक सितंबर, 2018 को जस्टिस ताहिरा सफदर बलूचिस्तान हाईकोर्ट की चीफ जस्टिस बनीं। पाकिस्तान के इतिहास में किसी महिला का हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस बनने के यह पहला मामला रहा। मूवमेंट फॉर सॉलिडरिटी एंड पीस इन पाकिस्तान के अनुसार हर साल ईसाई और हिंदू समुदायों की करीब एक हजार लड़कियों की जबरदस्ती शादी मुस्लिम युवकों से करा दी जाती है। बच्चों के स्कूलों को आतंकी समूह आए दिन निशाना बनाते रहते हैं।