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केन्द्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का आंदोलन पूरे जोरों पर है। इधर सरकार की ओर से किसानों के साथ तीसरे दौर की बातचीत भी बेनतीजा रही है व आज फिर बातचीत होनी है। किसानों का ऐलान स्पष्ट है कि कानून रद्द होने तक वे धरनों से नहीं हटेंगे। अब गेंद केन्द्र सरकार के पाले में है। देश की निगाहें सरकार की तरफ है कि सरकार कानून रद्द करने की मांग मानती है या नहीं। दरअसल अब कानून के सिद्धांतों को समझने व सिद्धांतों की रोशनी में ठोस निर्णय लेने का समय है। कानून शास्त्र में यह सिद्धांत सर्व व्यापक व सर्व प्रमाणित है कि कानून वही है, जिसे लागू किया जा सकता है, जो कानून लागू नहीं किया जा सकता उसके लिए नागरिकों पर जोर जबरदस्ती करना सही है या नहीं, यह सरकार को देखना होगा। लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रणाली के दो बड़े आधार लोक सहमति व लोकहित है।
जब आबादी का ऐसा बड़ा हिस्सा किसी कानून के खिलाफ हो तो कानून की महत्ता कमजोर पड़ने लगती है। कानून का दूसरा सिद्धांत व्यवहारिकता है। अतीत में बने कानून जब वर्तमान व भविष्य के लिए गैरजरूरी व अप्रासंगिक हो जाएं तो उनका केवल कागजी अस्तित्व ही रह जाता है। एनडीए सरकार अपने पिछले कार्यकाल में ऐसे काफी कानून खत्म कर चुकी है, जो आऊटडेटड हैं। जिन कानूनों की व्यवहारिकता उसके लागू करने के शुरूआती दौर में ही सवालों के घेरे में आ जाए, उसे कायम रखने की भी कोई वजह नहीं रह जाती। कृषि कानूनों के मामले में केन्द्र व किसानों के अपने-अपने तर्क व दावे हैं।
केन्द्र का दावा है कि आंदोलन केवल पंजाब व हरियाणा के ही किसान कर रहे हैं व इन किसानों को भी विपक्ष की राजनीतिक पार्टियां भड़का रही हैं। वहीं दूसरी तरफ किसान संगठन इसे पूरे देश का आंदोलन होने का दावा करते हैं। तथ्य यह है कि कृषि मामले पर विपक्षी पार्टियां बुरी तरह से पिछड़ गई हैं। असल में आंदोलन आगे निकल गया है व पार्टियां पीछे आंदोलन को बढ़ता देख आंदोलन का लाभ उठाने की कोशिशों में जुट गई हैं। यूं भी किसान संगठन विपक्षी पार्टियों के स्वार्थ व इशारों के प्रति पूरी तरह से सचेत हैं व पूरे आंदोलन में किसी भी राजनेता को मंच पर आने नहीं दिया गया। आवश्यकता है मुद्दे को राजनीतिक दाव पेचों से परे हटकर संवैधानिक व व्यवाहारिक नजरिये से हल किया जाए।

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