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नई दिल्ली : देश में लॉकडाउन की घोषणा होते ही हजारों प्रतिष्ठानों ने अपने-अपने कर्मचारियों को घर जाने का फरमान सुना दिया। ऐसा ही आदेश गुरुग्राम में नौकरी करने वाले राजकुमार को भी मिला। उसके मालिक ने कहा, 'घर जाओ और वहीं रहो।' लेकिन, राजकुमार का घर तो हजार कि.मी. से भी दूर बिहार के छपरा में हैं। उसके पास सिर्फ 1 हजार रुपये हैं और इसका कोई अता-पता नहीं कि अगली सैलरी कब आएगी। ऐसे में गुरुग्राम में ही पड़े रहने का कोई मतलब भी नहीं। मुश्किल यह कि जाने का कोई साधन नहीं।

तीन महीने की बच्ची और 58 वर्षीय मां के साथ पैदल मार्चराजकुमार ने अपनी पत्नी, तीन महीने की बच्ची और 58 वर्ष की मां के साथ बुधवार को अहले सुबह पैदल ही निकल गए गांव की ओर। उनकी तरह कई और लोग सड़क पर पैदल चलते मिले, इस उम्मीद में कि घर पहुंचने का कुछ-न-कुछ रास्ता तो निकल ही जाएगा। पैदल मार्च पर निकले लोगों का झुंड शाम तक यूपी पहुंच गया। उन्होंने दिनभर में दिल्ली को पार करते हुए 50 किमी की दूरी तय कर ली थी। कुछ स्थानीय लोगों ने उन्हें खाने का पैकेट दिए। झुंड बढ़ता गया कि यह सोचते हुए कि कहीं कोई गाड़ी मिल जाए। 

दिल्ली-एनसीआर से अचानक निकलने वालों की ऐसी कई झुंड सड़कों पर है। जो लोग गांव लौट रहे हैं, उनमें ज्यादातर फैक्ट्री और दिहाड़ी मजदूर हैं। फैक्ट्रियां और काम-धंधे बंद होने के कारण वो अचानक बेरोजगार हो गए हैं। उनका गांव की ओर पलायन सरकार के लिए भी चिंता का सबब है क्योंकि लॉकडाउन का मकसद ही खतरे में आ गया है जो लोगों की आवाजाही रोकना है। बुधवार शाम तक गाजियाबाद पहुंच चुके राजकुमार ने कहा, 'मैं कमरे का किराया कैसे दे पाऊंगा? घर लौटने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था। सब सामन्य होने के बाद जब मालिक का कॉल आएगा तभी मैं लौटूंगा।' 

मनोज ठाकुर गाजियाबाद के वैशाली की एक फैक्ट्री में काम करते हैं। आनंद विहार बस टर्मिनल से उन्हें कोई साधन नहीं मिला तो 10 घंटे पैदल चलकर दादरी तक पहुंचे। उन्होंने बताया, 'मैं फैक्ट्री के करीब किराये के कमरे में रहता हूं। मैं 3 बजे शाम को पैदल चलना शुरू किया और रात 1 बजे दादरी पहुंचा। मेरे पास खाना है, लेकिन पानी नहीं है। हाइवे पर एक भी दुकान भी खुली नहीं है।' मनोज को यूपी के एटा जिला स्थित अपना घर पहुंचने के लिए अब भी 160 किमी पैदल चलना था। 

उधर, एटा की ही मनोरमा और उनकी 11 साल की बेटी भी पैदल चल रही हैं। उन्होंने कहा, 'हम जैसे लोगों को जीने के लिए दिहाड़ी मजदूरी करनी पड़ती है। हमारे पास इतना पैसा नहीं बचा है कि एक महीना किराये के कमरे में रहें। रातोंरात गाड़ियां बंद करने का फैसला लेने वालों को हमारे बारे में सोचना चाहिए था।' वो शायद आज घर पहुंच गई होंगी। उन्होंने अपनी बेटी के साथ रात कहां बिताई, पता नहीं। 

लॉकडाउन के ऐलान के बाद मजदूरों को मालिकों ने या तो पैसे दिए ही नहीं या इतने दिए कि 21 दिन काटना संभव नहीं। ओंकार ने पूछा, 'मुझे 1 हजार रुपया देकर घर जाने को कह दिया। हम इतने पैसे से यहां कैसे रह सकते हैं। कमरे का किराया कहां से दें? महंगे हो रहे सामान कैसे खरीदें?' ओंकार और उनके छह साथी नोएडा की एक मिठाई दुकान में काम करते थे। उन्हें अपने घर आगरा पहुंचना है।

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